मैदाने करबला में दसवीं मुहर्रम को जब हज़रत इमाम रजियल्लाहु तआला अन्हु के जुमला अहबाब व अकारिब शहीद हो गये ! तो हज़रत इमाम हुसैन रजियल्लाहु तआला अन्हु ने खुद पोशाक बदली !
कुबाए मिस्री पहनी ; अमामा रसूले खुदा बांधा सपरे (ढाल) हमजा और जुलफिकारे हैदरे कर्रार (तलवार) लेकर घोडे पर सवार होकर मैदान में जाने का इरादा किया ।
इतने में हज़रत के साहबजादे हजरत अली औसत यानी हजरत इमाम जैनुल आबिदीन रजियल्लाहु तआला अन्हु जो उस वक्त बीमार थे ! और कमजोरी है की वजह से उठ न सकते थे !
बडी मुश्किल से असा (लाठी) थामे हुए ! कमजोरी की वजह से लडखडाते हुए ! हजरत इमाम’ के पास आकर अर्ज़ करने लगे ! कि अब्बाजाना मेरे होते हुए आप क्यो तशरीफ़ ले जा रहे हैं ? मुझे भी हुक्म दीजिये ! कि मैं भी दर्जाए शहादत हासिल कर लूं ! और हाँ अपने भाईयों से जा मिलू !
इमाम यह गुफ्तगू सुनकर आबदीदा हो हैं गये ! इरशाद फ़रमाया ऐ राहते जाने हुसैन तुम खेमे अहले-बैत में जाकर बैठो ! और शहादत का इरादा न करो !
बेटा रसूले मकबूल सल्लल्लाहु अलेहि वसल्लम की नस्ल तुम्हारे जीने ही से बाकी रहेगी ! क्यामत तक मुन्कता न होगी (ख़त्म न होगी)
हज़रत इमाम का यह इरशाद सुनकर साहबजादे खामोश हो गए ! फिर हजरत इमाम ने उनको नसीहत व वसीयत करके तमाम उलूम जाहिरी व बातनी और राज़े इमामत से आगाह फ़रमाया जो तरीका तालीम सीना ब सीना रसूले मकबूल सल्लल्लाहु अलेहि वसल्लम से जारी हुआ था ! सब उसी वक्त उन पर मुन्कशिफ़ फरमा दिया ।
फिर आप खेमे के अंदर तशरीफ़ लाये और अहले-बैत की तरफ़ मुखातिब होकर हर एक से अलविदाई कलाम फ़रमाया ।
बकौल शायर:
अलविदा ऐ अहले बैते मुस्तफा
अलविदा ऐ आले पैयम्बर *अलविदा!
फिर गले लिपट के आबिद से कहा
ऐ मेरे बीमार दिलबर !अलविदा!
जैनब व कुलसूम से यह फिर कहा
अब है तुम से भी बिरादर अलविदा
.बोले फिर बाली सकीना से हुसेन
ऐ मेरी मज़लूम दुख्तर अलविदा
शहरबानो से यही कहते थे शाह
ऐ मेरी ग़मख़्वार मुजतर अलविदा
बस खुदा हाफिज तुम्हारा दोस्ती
साबिर व मज़लूम मुज़तर अलविदा
(तनकीहुश-शहादतेन सफा 78 )
सबक –
हजरत इमाम जैनुल आबिदीन बीमारी के आलम में भी जज़्बाए जिहाद और शहादत की तड़प का इजहार फ़रमाते हैं !
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