मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी (३० सितम्बर, १२०७) फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक थे जिन्होंने मसनवी में महत्वपूर्ण योगदान किया। इन्होंने सूफ़ी परंपरा में नर्तक साधुओ (गिर्दानी दरवेशों) की परंपरा का संवर्धन किया। रूमी अफ़ग़ानिस्तान के मूल निवासी थे पर मध्य तुर्की के सल्जूक दरबार में इन्होंने अपना जीवन बिताया और कई महत्वपूर्ण रचनाएँ रचीं। कोन्या (मध्य तुर्की) में ही इनका देहांत हुआ जिसके बाद आपकी कब्र एक मज़ार का रूप लेती गई जहाँ आपकी याद में सालाना आयोजन सैकड़ों सालों से होते आते रहे हैं।
रूमी के जीवन में शम्स तबरीज़ी का महत्वपूर्ण स्थान है जिनसे मिलने के बाद इनकी शायरी में मस्ताना रंग भर आया था। इनकी रचनाओं के एक संग्रह (दीवान) को दीवान-ए-शम्स कहते हैं।
इनका जन्म फारस देश के प्रसिद्ध नगर
बाल्ख़ में सन् 604 हिजरी में हुआ था। रूमी के पिता शेख बहाउद्दीन अपने समय के अद्वितीय पंडित थे जिनके उपदेश सुनने और फतवे लेने फारस के बड़े-बड़े अमीर और विद्वान् आया करते थे। एक बार किसी मामले में सम्राट् से मतभेद होने के कारण उन्होंने बलख नगर छोड़ दिया। तीन सौ विद्वान मुरीदों के साथ वे बलख से रवाना हुए। जहां कहीं वे गए, लोगों ने उसका हृदय से स्वागत किया और उनके उपदेशों से लाभ उठाया। यात्रा करते हुए सन् 610 हिजरी में वे नेशांपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां के प्रसिद्ध विद्वान् ख्वाजा फरीदउद्दीन अत्तार उनसे मिलने आए। उस समय बालक जलालुद्दीन की उम्र ६ वर्ष की थी। ख्वाजा अत्तार ने जब उन्हें देखा तो बहुत खुश हुए और उसके पिता से कहा, “यह बालक एक दिन अवश्य महान पुरुष होगा। इसकी शिक्षा और देख-रेख में कमी न करना।” ख्वाजा अत्तार ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मसनवी अत्तार की एक प्रति भी बालक रूमी को भेंट की।
वहां से भ्रमण करते हुए वे बगदाद पहुंचे और कुछ दिन वहां रहे। फिर वहां से हजाज़ और शाम होते हुए लाइन्दा पहुंचे। १८ वर्ष की उम्र में रूमी का विवाह एक प्रतिष्ठित कुल की कन्या से हुआ। इसी दौरान बादशाह ख्व़ाजरज़मशाह का देहान्त हो गया और शाह अलाउद्दीन कैकबाद राजसिंहासन पर बैठे। उन्होंने अपने कर्मचारी भेजकर शेख बहाउद्दीन से वापस आने की प्रार्थना की। सन् ६२४ हिजरी में वह अपने पुत्र सहित क़ौनिया गए और चार वर्ष तक यहां रहे। सन ६२८ हिजरी में उनका देहान्त हो गया।
रूमी अपने पिता के जीवनकाल से उनके विद्वान शिष्य सैयद बरहानउद्दीन से पढ़ा करते थे। पिता की मृत्यु के बाद वह दमिश्क और हलब के विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले गये और लगभग १५ वर्ष बाद वापस लौटे। उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष की हो गयी थी। तब तक रूमी की विद्वत्ता और सदाचार की इतनी प्रसिद्ध हो गयी थी कि देश-देशान्तरों से लोग उनके दर्शन करने और उपदेश सुनने आया करते थे। रूमी भी रात-दिन लोगों को सन्मार्ग दिखाने और उपदेश देने में लगे रहते। इसी अर्से में उनकी भेंट विख्यात साधू शम्स तबरेज़ से हुई जिन्होंने रूमी को अध्यात्म-विद्या की शिक्षा दी और उसके गुप्त रहस्य बतलाये। रूमी पर उनकी शिखाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा कि रात-दिन आत्मचिन्तन और साधना में संलग्न रहने लगे। उपदेश, फतवे ओर पढ़ने-पढ़ाने का सब काम बन्द कर दिया। जब उनके भक्तों और शिष्यों ने यह हालत देखी तो उन्हें सन्देह हुआ कि शम्स तबरेज़ ने रूमी पर जादू कर दिया है। इसलिए वे शम्स तबरेज़ के विरुद्ध हो गये और उनका वध कर डाला। इस दुष्कृत्य में रूमी के छोटे बेटे इलाउद्दीन मुहम्मद का भी हाथ था। इस हत्या से सारे देश में शोक छा गया और हत्यारों के प्रति रोष और घृणा प्रकट की गयी। रूमी को इस दुर्घटना से ऐसा दु:ख हुआ कि वे संसार से विरक्त हो गये और एकान्तवास करने लगे। इसी समय उन्होंने अपने प्रिय शिष्य मौलाना हसामउद्दीन चिश्ती के आग्रह पर ‘मसनवी’ की रचना शुरू की। कुछ दिन बाद वह बीमार हो गये और फिर स्वस्थ नहीं हो सके। ६७२ हिजरी में उनका देहान्त हो गया। उस समय वे ६८ वर्ष के थे। उनकी मज़ार क़ौनिया में बनी हुई है।
रूमी की कविताओं में प्रेम और ईश्वर भक्ति का सुंदर समिश्रण है। इनको हुस्न और ख़ुदा के बारे में लिखने के लिए जाना जाता है।
माशूक चूँ आफ़्ताब ताबां गरदद।
आशक़ बे मिस्ल-ए-ज़र्र-ए-गरदान गरदद।
चूँ बाद-ए-बहार-ए-इश्क़ जोंबां गरदद।
हर शाख़ के ख़ुश्क नीस्त, रक़सां गरदद।
(प्रेमिका सूरज की तरह जलकर घूमती है और आशिक़ घूमते हुए कणों की तरह परिक्रमा करते हैं। जब इश्क़ की हवा हिलोर करती है, तो हर शाख (डाली) जो सूखी नहीं है, नाचते हुए परिक्रमा करती है)
#Rumi
ﻣﺤﻤﺪ ﺟﻼﻝ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﺭﻭﻣﯽ ( ﭘﯿﺪﺍﺋﺶ : 1207 ﺀ ﻣﯿﮟ ﭘﯿﺪﺍ ﮨﻮﺋﮯ، ﻣﺸﮩﻮﺭ ﻓﺎﺭﺳﯽ ﺷﺎﻋﺮ ﺗﮭﮯ۔
ﻣﺜﻨﻮﯼ ، ﻓﯿﮧ ﻣﺎ ﻓﯿﮧ ﺍﻭﺭ ﺩﯾﻮﺍﻥ ﺷﻤﺲ ﺗﺒﺮﯾﺰ ﺁﭖ ﮐﯽ ﻣﻌﺮﻑ ﮐﺘﺐ ﮨﮯ، ﺁﭖ ﺩﻧﯿﺎ ﺑﮭﺮ ﻣﯿﮟ ﺍﭘﻨﯽ ﻻﺯﺍﻭﻝ ﺗﺼﻨﯿﻒ ﻣﺜﻨﻮﯼ ﮐﯽ ﺑﺪﻭﻟﺖ ﺟﺎﻧﮯ ﺟﺎﺗﮯ ﮨﯿﮟ، ﺁﭖ ﮐﺎ ﻣﺰﺍﺭ ﺗﺮﮐﯽ ﻣﯿﮟ ﻭﺍﻗﻊ ﮨﮯ۔
ﺍﺻﻞ ﻧﺎﻡ ﻣﺤﻤﺪ ﺍﺑﻦ ﻣﺤﻤﺪ ﺍﺑﻦ ﺣﺴﯿﻦ ﺣﺴﯿﻨﯽ ﺧﻄﯿﺒﯽ ﺑﮑﺮﯼ ﺑﻠﺨﯽ ﺗﮭﺎ۔ ﺍﻭﺭ ﺁﭖ ﺟﻼﻝ ﺍﻟﺪﯾﻦ، ﺧﺪﺍﻭﻧﺪﮔﺎﺭ ﺍﻭﺭ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﺧﺪﺍﻭﻧﺪﮔﺎﺭ ﮐﮯ ﺍﻟﻘﺎﺏ ﺳﮯ ﻧﻮﺍﺯﮮ ﮔﺌﮯ۔ ﻟﯿﮑﻦ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﺭﻭﻣﯽ ﮐﮯ ﻧﺎﻡ ﺳﮯ ﻣﺸﮩﻮﺭ ﮨﻮﺋﮯ۔ ﺟﻮﺍﮨﺮ ﻣﻀﺌﯿﮧ ﻣﯿﮟ ﺳﻠﺴﻠﮧ ﻧﺴﺐ ﺍﺱ ﻃﺮﺡ ﺑﯿﺎﻥ ﮐﯿﺎ ﮨﮯ : ﻣﺤﻤﺪ ﺑﻦ ﻣﺤﻤﺪ ﺑﻦ ﻣﺤﻤﺪ ﺑﻦ ﺣﺴﯿﻦ ﺑﻦ ﺍﺣﻤﺪ ﺑﻦ ﻗﺎﺳﻢ ﺑﻦ ﻣﺴﯿﺐ ﺑﻦ ﻋﺒﺪﺍﻟﻠﮧ ﺑﻦ ﻋﺒﺪﺍﻟﺮﺣﻤﻦ ﺑﻦ ﺍﺑﯽ ﺑﮑﺮﻥ ﺍﻟﺼﺪﯾﻖ۔ ﺍﺱ ﺭﻭﺍﯾﺖ ﺳﮯ ﺣﺴﯿﻦ ﺑﻠﺨﯽ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﮯ ﭘﺮﺩﺍﺩﺍ ﮨﻮﺗﮯ ﮨﯿﮟ ﻟﯿﮑﻦ ﺳﭙﮧ ﺳﺎﻻﺭ ﻧﮯ ﺍﻧﮩﯿﮟ ﺩﺍﺩﺍ ﻟﮑﮭﺎ ﮨﮯ ﺍﻭﺭ ﯾﮩﯽ ﺭﻭﺍﯾﺖ ﺻﺤﯿﺢ ﮨﮯ۔ ﮐﯿﻮﻧﮑﮧ ﻭﮦ ﺳﻠﺠﻮﻗﯽ ﺳﻠﻄﺎﻥ ﮐﮯ ﮐﮩﻨﮯ ﭘﺮ ﺍﻧﺎﻃﻮﻟﯿﮧ ﭼﻠﮯ ﮔﺌﮯ ﺗﮭﮯ ﺟﻮ ﺍﺱ ﺯﻣﺎﻧﮯ ﻣﯿﮟ ﺭﻭﻡ ﮐﮩﻼﺗﺎ ﺗﮭﺎ۔ ﺍﻥ ﮐﮯ ﻭﺍﻟﺪ ﺑﮩﺎﺅ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﺑﮍﮮ ﺻﺎﺣﺐ ﻋﻠﻢ ﻭ ﻓﻀﻞ ﺑﺰﺭﮒ ﺗﮭﮯ۔ ﺍﻥ ﮐﺎ ﻭﻃﻦ ﺑﻠﺦ ﺗﮭﺎ ﺍﻭﺭ ﯾﮩﯿﮟ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﺭﻭﻣﯽ 1207 ﺀ ﺑﻤﻄﺎﺑﻖ 6 ﺭﺑﯿﻊ ﺍﻻﻭﻝ 604 ﮪ ﻣﯿﮟ ﭘﯿﺪﺍ ﮨﻮﺋﮯ۔
ﺍﺑﺘﺪﺍﺋﯽ ﺗﻌﻠﯿﻢ ﮐﮯ ﻣﺮﺍﺣﻞ ﺷﯿﺦ ﺑﮩﺎﻭﻟﺪﯾﻦ ﻧﮯ ﻃﮯ ﮐﺮﺍﺩﯾﮯ ﺍﻭﺭ ﭘﮭﺮ ﺍﭘﻨﮯ ﻣﺮﯾﺪ ﺳﯿﺪ ﺑﺮﮨﺎﻥ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﮐﻮ ﺟﻮ ﺍﭘﻨﮯ ﺯﻣﺎﻧﮯ ﮐﮯ ﻓﺎﺿﻞ ﻋﻠﻤﺎﺀ ﻣﯿﮟ ﺷﻤﺎﺭ ﮐﯿﮯ ﺟﺎﺗﮯ ﺗﮭﮯ ﻣﻮﻻﻧﺎﮐﺎ ﻣﻌﻠﻢ ﺍﻭﺭ ﺍﺗﺎﻟﯿﻖ ﺑﻨﺎﺩﯾﺎ۔ ﺍﮐﺜﺮ ﻋﻠﻮﻡ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﻮ ﺍﻧﮩﯽ ﺳﮯ ﺣﺎﺻﻞ ﮨﻮﺋﮯ۔ ﺍﭘﻨﮯ ﻭﺍﻟﺪ ﮐﯽ ﺣﯿﺎﺕ ﺗﮏ ﺍﻥ ﮨﯽ ﮐﯽ ﺧﺪﻣﺖ ﻣﯿﮟ ﺭﮨﮯ۔ ﻭﺍﻟﺪ ﮐﮯ ﺍﻧﺘﻘﺎﻝ ﮐﮯ ﺑﻌﺪ 639 ﮪ ﻣﯿﮟ ﺷﺎﻡ ﮐﺎ ﻗﺼﺪ ﮐﯿﺎ ۔ ﺍﺑﺘﺪﺍ ﻣﯿﮟ ﺣﻠﺐ ﮐﮯ ﻣﺪﺭﺳﮧ ﺣﻼﻭﯾﮧ ﻣﯿﮟ ﺭﮦ ﮐﺮ ﻣﻮﻻﻧﺎﮐﻤﺎﻝ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﺳﮯ ﺷﺮﻑ ﺗﻠﻤﺬ ﺣﺎﺻﻞ ﮐﯿﺎ۔
ﻣﻮﻻﻧﺎ ﺭﻭﻣﯽ ﺍﭘﻨﮯ ﺩﻭﺭ ﮐﮯ ﺍﮐﺎﺑﺮ ﻋﻠﻤﺎﺀ ﻣﯿﮟ ﺳﮯ ﺗﮭﮯ۔ ﻓﻘﮧ ﺍﻭﺭ ﻣﺬﺍﮨﺐ ﮐﮯ ﺑﮩﺖ ﺑﮍﮮ ﻋﺎﻟﻢ ﺗﮭﮯ۔ ﻟﯿﮑﻦ ﺁﭖ ﮐﯽ ﺷﮩﺮﺕ ﺑﻄﻮﺭ ﺍﯾﮏ ﺻﻮﻓﯽ ﺷﺎﻋﺮ ﮐﮯ ﮨﻮﺋﯽ۔ ﺩﯾﮕﺮﻋﻠﻮﻡ ﻣﯿﮟ ﺑﮭﯽ ﺁﭖ ﮐﻮ ﭘﻮﺭﯼ ﺩﺳﺘﮕﺎﮦ ﺣﺎﺻﻞ ﺗﮭﯽ۔ ﺩﻭﺭﺍﻥ ﻃﺎﻟﺐ ﻋﻠﻤﯽ ﻣﯿﮟ ﮨﯽ ﭘﯿﭽﯿﺪﮦ ﻣﺴﺎﺋﻞ ﻣﯿﮟ ﻋﻠﻤﺎﺋﮯ ﻭﻗﺖ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﯽ ﻃﺮﻑ ﺭﺟﻮﻉ ﮐﺮﺗﮯ ﺗﮭﮯ۔
ﺷﻤﺲ ﺗﺒﺮﯾﺰ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﮯ ﭘﯿﺮ ﻭ ﻣﺮﺷﺪ ﺗﮭﮯ۔ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﯽ ﺷﮩﺮﺕ ﺳﻦ ﮐﺮ ﺳﻠﺠﻮﻗﯽ ﺳﻠﻄﺎﻥ ﻧﮯ ﺍﻧﮭﯿﮟ ﺍﭘﻨﮯ ﭘﺎﺱ ﺑﻠﻮﺍﯾﺎ۔ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﻧﮯ ﺩﺭﺧﻮﺍﺳﺖ ﻗﺒﻮﻝ ﮐﯽ ﺍﻭﺭ ﻗﻮﻧﯿﮧ ﭼﻠﮯ ﮔﺌﮯ ۔ﻭﮦ ﺗﻘﺮﯾﺒﺎًَ 30 ﺳﺎﻝ ﺗﮏ ﺗﻌﻠﯿﻢ ﻭ ﺗﺮﺑﯿﺖ ﻣﯿﮟ ﻣﺸﻐﻮﻝ ﺭﮨﮯ۔ ﺟﻼﻝ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﺭﻭﻣﯽ ؒ ﻧﮯ 3500 ﻏﺰﻟﯿﮟ 2000 ﺭﺑﺎﻋﯿﺎﺕ ﺍﻭﺭ ﺭﺯﻣﯿﮧ ﻧﻈﻤﯿﮟ ﻟﮑﮭﯿﮟ۔
ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﮯ ﺩﻭ ﻓﺮﺯﻧﺪ ﺗﮭﮯ ، ﻋﻼﺅ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﻣﺤﻤﺪ ، ﺳﻠﻄﺎﻥ ﻭﻟﺪ ۔ ﻋﻼﺅ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﻣﺤﻤﺪ ﮐﺎ ﻧﺎﻡ ﺻﺮﻑ ﺍﺱ ﮐﺎﺭﻧﺎﻣﮯ ﺳﮯ ﺯﻧﺪﮦ ﮨﮯ ﮐﮧ ﺍﻧﮩﻮﮞ ﻧﮯ ﺷﻤﺲ ﺗﺒﺮﯾﺰ ﮐﻮ ﺷﮩﯿﺪ ﮐﯿﺎ ﺗﮭﺎ۔ ﺳﻠﻄﺎﻥ ﻭﻟﺪ ﺟﻮ ﻓﺮﺯﻧﺪ ﺍﮐﺒﺮ ﺗﮭﮯ ، ﺧﻠﻒ ﺍﻟﺮﺷﯿﺪ ﺗﮭﮯ ، ﮔﻮ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﯽ ﺷﮩﺮﺕ ﮐﮯ ﺁﮔﮯ ﺍﻥ ﮐﺎ ﻧﺎﻡ ﺭﻭﺷﻦ ﻧﮧ ﮨﻮﺳﮑﺎ ﻟﯿﮑﻦ ﻋﻠﻮﻡ ﻇﺎﮨﺮﯼ ﻭ ﺑﺎﻃﻨﯽ ﻣﯿﮟ ﻭﮦ ﯾﮕﺎﻧﮧ ﺭﻭﺯﮔﺎﺭ ﺗﮭﮯ۔ ﺍﻥ ﮐﯽ ﺗﺼﺎﻧﯿﻒ ﻣﯿﮟ ﺳﮯ ﺧﺎﺹ ﻗﺎﺑﻞ ﺫﮐﺮ ﺍﯾﮏ ﻣﺜﻨﻮﯼ ﮨﮯ ، ﺟﺲ ﻣﯿﮟ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﮯ ﺣﺎﻻﺕ ﺍﻭﺭ ﻭﺍﺭﺩﺍﺕ ﻟﮑﮭﮯ ﮨﯿﮟ ﺍﻭﺭ ﺍﺱ ﻟﺤﺎﻅ ﺳﮯ ﻭﮦ ﮔﻮﯾﺎ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﯽ ﻣﺨﺘﺼﺮ ﺳﻮﺍﻧﺢ ﻋﻤﺮﯼ ﮨﮯ۔
ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﺎ ﺳﻠﺴﻠﮧ ﺍﺏ ﺗﮏ ﻗﺎﺋﻢ ﮨﮯ۔ ﺍﺑﻦ ﺑﻄﻮﻃﮧ ﻧﮯ ﺍﭘﻨﮯ ﺳﻔﺮﻧﺎﻣﮯ ﻣﯿﮟ ﻟﮑﮭﺎ ﮨﮯ ﮐﮧ ﺍﻥ ﮐﮯ ﻓﺮﻗﮯ ﮐﮯ ﻟﻮﮒ ﺟﻼﻟﯿﮧ ﮐﮩﻼﺗﮯ ﮨﯿﮟ۔ ﭼﻮﻧﮑﮧ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﮐﺎ ﻟﻘﺐ ﺟﻼﻝ ﺍﻟﺪﯾﻦ ﺗﮭﺎ ﺍﺱ ﻟﯿﮯ ﺍﻥ ﮐﮯ ﺍﻧﺘﺴﺎﺏ ﮐﯽ ﻭﺟﮧ ﺳﮯ ﯾﮧ ﻧﺎﻡ ﻣﺸﮩﻮﺭ ﮨﻮﺍ ﮨﻮﮔﺎ ۔ ﻟﯿﮑﻦ ﺁﺝ ﮐﻞ ﺍﯾﺸﯿﺎﺋﮯ ﮐﻮﭼﮏ ، ﺷﺎﻡ ، ﻣﺼﺮ ﺍﻭﺭ ﻗﺴﻄﻨﻄﻨﯿﮧ ﻣﯿﮟ ﺍﺱ ﻓﺮﻗﮯ ﮐﻮ ﻟﻮﮒ ﻣﻮﻟﻮﯾﮧ ﮐﮩﺘﮯ ﮨﯿﮟ۔ﺩﻭﺳﺮﯼ ﺟﻨﮓ ﻋﻈﯿﻢ ﺳﮯ ﻗﺒﻞ ﺑﻠﻘﺎﻥ، ﺍﻓﺮﯾﻘﮧ ﺍﻭﺭ ﺍﯾﺸﯿﺎ ﻣﯿﮟ ﻣﻮﻟﻮﯼ ﻃﺮﯾﻘﺖ ﮐﮯ ﭘﯿﺮﻭﮐﺎﺭﻭﮞ ﮐﯽ ﺗﻌﺪﺍﺩ ﺍﯾﮏ ﻻﮐﮫ ﺳﮯ ﺯﺍﺋﺪ ﺗﮭﯽ۔ ﯾﮧ ﻟﻮﮒ ﻧﻤﺪ ﮐﯽ ﭨﻮﭘﯽ ﭘﮩﻨﺘﮯ ﮨﯿﮟ ﺟﺲ ﻣﯿﮟ ﺟﻮﮌ ﯾﺎ ﺩﺭﺯ ﻧﮩﯿﮟ ﮨﻮﺗﯽ ، ﻣﺸﺎﺋﺦ ﺍﺱ ﭨﻮﭘﯽ ﭘﺮ ﻋﻤﺎﻣﮧ ﺑﺎﻧﺪﮬﺘﮯ ﮨﯿﮟ۔ ﺧﺮﻗﮧ ﯾﺎ ﮐﺮﺗﮧ ﮐﯽ ﺑﺠﺎﺋﮯ ﺍﯾﮏ ﭼﻨﭧ ﺩﺍﺭ ﭘﺎﺟﺎﻣﮧ ﮨﻮﺗﺎﮨﮯ۔ ﺫﮐﺮ ﻭ ﺷﻐﻞ ﮐﺎ ﯾﮧ ﻃﺮﯾﻘﮧ ﮨﮯ ﮐﮧ ﺣﻠﻘﮧ ﺑﺎﻧﺪﮪ ﮐﺮ ﺑﯿﭩﮭﺘﮯ ﮨﯿﮟ۔ ﺍﯾﮏ ﺷﺨﺺ ﮐﮭﮍﺍ ﮨﻮ ﮐﺮ ﺍﯾﮏ ﮨﺎﺗﮫ ﺳﯿﻨﮯ ﭘﺮ ﺍﻭﺭ ﺍﯾﮏ ﮨﺎﺗﮫ ﭘﮭﯿﻼﺋﮯ ﮨﻮﺋﮯ ﺭﻗﺺ ﺷﺮﻭﻉ ﮐﺮﺗﺎ ﮨﮯ۔ ﺭﻗﺺ ﻣﯿﮟ ﺁﮔﮯ ﭘﯿﭽﮭﮯ ﺑﮍﮬﻨﺎ ﯾﺎ ﮨﭩﻨﺎ ﻧﮩﯿﮟ ﮨﻮﺗﺎ ﺑﻠﮑﮧ ﺍﯾﮏ ﺟﮕﮧ ﺟﻢ ﮐﺮ ﻣﺘﺼﻞ ﭼﮑﺮ ﻟﮕﺎﺗﮯ ﮨﯿﮟ۔ ﺳﻤﺎﻉ ﮐﮯ ﻭﻗﺖ ﺩﻑ ﺍﻭﺭ ﻧﮯ ﺑﮭﯽ ﺑﺠﺎﺗﮯ ﮨﯿﮟ۔
ﺑﻘﯿﮧ ﺯﻧﺪﮔﯽ ﻭﮨﯿﮟ ﮔﺬﺍﺭ ﮐﺮ ﺗﻘﺮﯾﺒﺎًَ 66 ﺳﺎﻝ ﮐﯽ ﻋﻤﺮ ﻣﯿﮟ ﺳﻦ 1273 ﺀ ﺑﻤﻄﺎﺑﻖ 672 ﮪ ﻣﯿﮟ ﺍﻧﺘﻘﺎﻝ ﮐﺮﮔﺌﮯ۔ ﻗﻮﻧﯿﮧ ﻣﯿﮟ ﺍﻥ ﮐﺎ ﻣﺰﺍﺭ ﺁﺝ ﺑﮭﯽ ﻋﻘﯿﺪﺕ ﻣﻨﺪﻭﮞ ﮐﺎ ﻣﺮﮐﺰ ﮨﮯ۔
ﺍﻥ ﮐﯽ ﺳﺐ ﺳﮯ ﻣﺸﮩﻮﺭ ﺗﺼﻨﯿﻒ ’’ ﻣﺜﻨﻮﯼ ﻣﻮﻻﻧﺎ ﺭﻭﻡ ‘‘ ﮨﮯ۔ ﺍﺱ ﮐﮯ ﻋﻼﻭﮦ ﺍﻥ ﮐﯽ ﺍﯾﮏ ﻣﺸﮩﻮﺭ ﮐﺘﺎﺏ ’’ ﻓﯿﮧ ﻣﺎﻓﯿﮧ ‘‘ ﺑﮭﯽ ﮨﮯ۔
” ﺑﺎﻗﯽ ﺍﯾﮟ ﮔﻔﺘﮧ ﺁﯾﺪ ﺑﮯ ﺯﺑﺎﮞ
ﺩﺭ ﺩﻝ ﮨﺮ ﮐﺲ ﮐﮧ ﺩﺍﺭﺩ ﻧﻮﺭِ ﺟﺎﻥ
ﺗﺮﺟﻤﮧ : ’’ ﺟﺲ ﺷﺨﺺ ﮐﯽ ﺟﺎﻥ ﻣﯿﮟ ﻧﻮﺭﮨﻮﮔﺎ ﺍﺱ ﻣﺜﻨﻮﯼ ﮐﺎ ﺑﻘﯿﮧ ﺣﺼﮧ ﺍﺱ ﮐﮯ ﺩﻝ ﻣﯿﮟ ﺧﻮﺩﺑﺨﻮﺩ ﺍﺗﺮ ﺟﺎﺋﮯ ﮔﺎ ‘‘ “
ﺍﻥ ﮐﮯ 800 ﻭﯾﮟ ﺟﺸﻦ ﭘﯿﺪﺍﺋﺶ ﭘﺮ ﺗﺮﮐﯽ ﮐﯽ ﺩﺭﺧﻮﺍﺳﺖ ﭘﺮ ﺍﻗﻮﺍﻡ ﻣﺘﺤﺪﮦ ﮐﮯ ﺍﺩﺍﺭﮦ ﺑﺮﺍﺋﮯ ﺗﻌﻠﯿﻢ، ﺛﻘﺎﻓﺖ ﻭ ﺳﺎﺋﻨﺲ ﯾﻮﻧﯿﺴﮑﻮ ﻧﮯ
2007 ﺀ ﮐﻮ ﺑﯿﻦ ﺍﻻﻗﻮﺍﻣﯽ ﺳﺎﻝِ ﺭﻭﻣﯽ ﻗﺮﺍﺭ ﺩﯾﺎ۔ ﺍﺱ ﻣﻮﻗﻊ ﭘﺮ ﯾﻮﻧﯿﺴﮑﻮ ﺗﻤﻐﺎ ﺑﮭﯽ ﺟﺎﺭﯼ ﮐﯿﺎ۔
=======
अमरीका क्यों मानता है जलालुद्दीन का लोहा
हाल के सालों में फ़ारसी के मशहूर शायर और सूफ़ी दिग्गज जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी की लोकप्रियता अमरीका में इतनी बढ़ी है कि कविता प्रेमियों के बीच वो सबसे मशहूर कवि माने जा रहे हैं.
रूमी का जन्म 1207 में ताजिकिस्तान के एक गांव में हुआ था.
उनके जन्म के 800 से ज़्यादा साल बाद भी अमरीका में उनकी रूबाईयों और ग़ज़लों की किताबों की लाखों प्रतियां बिक रही हैं.
दुनिया भर में तो उनके करोड़ों प्रशंसकों की संख्या है ही. रूमी की जीवनी लिख रहे ब्रैड गूच कहते हैं, “रूमी का सभी संस्कृतियों पर असर दिखता है.”
गूच ने रूमी की जीवनी पर काम करने के लिए उन तमाम मुल्कों की यात्रा की है, जो किसी ना किसी रूप में रूमी से जुड़े रहे.
गूच कहते हैं, “रूमी का जीवन 2500 मील लंबे इलाके में फैला हुआ है. रूमी का जन्म ताजिकिस्तान के वख़्श गांव में हुआ. इसके बाद वे उज्बेकिस्तान में समरकंद, फिर ईरान और सीरिया गए. रूमी ने युवावस्था में सीरिया (शाम) के दमिश्क और एलेप्पो में अपनी पढ़ाई पूरी की.”
इसके बाद उन्होंने जीवन के 50 सालों तक तुर्की के कोन्या को अपना ठिकाना बनाया और वहीं रूमी का निधन हुआ था.
शम्स तबरेज़ी का असर
रूमी के मक़बरे पर हर साल 17 दिसंबर को उनके प्रशंसकों (कई राष्ट्राध्यक्षों समेत) का जमावड़ा लगता है. उनकी पुण्यतिथि पर दरवेशी परंपरा के इस आयोजन में दुनिया भर से रूमी प्रशंसक पहुंचते हैं.
रूमी के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव 1244 में आया जब वे सूफ़ी संत शम्स तबरेज़ी से मिले. गूच बताते हैं, “तब रूमी 37 साल के थे और अपने पिता और दादा की तरह वे एक मुस्लिम धार्मिक गुरू और विद्धान थे.”
गूच कहते हैं, “रूमी और शम्स में तीन साल तक बेहतरीन दोस्ती रही. दोनों के बीच ये रिश्ता प्रेम का था या फिर मुरशिद-चेले (गुरू-शिष्य) का था, ये स्पष्ट नहीं हो पाया.” लेकिन इस सोहबत ने रूमी को सूफ़ियाना रंग में रंग लिया.
तीन साल बाद शम्स तबरेज़ी अचानक ग़ायब हो गए. रूमी सूफ़ी बन गए.
कहा जाता है कि शायद शम्स की हत्या रूमी के किसी बेटे ने कर दी हो, जो अपने पिता और शम्स की दोस्ती से ईष्या करने लगा हो. इसके बाद रूमी पूरी तरह शायरी में डूब गए.
गूच बताते हैं, “उनकी लगभग सभी रचनाएँ 37 से 67 साल की उम्र में लिखी गईं. उन्होंने शम्स, पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने वाले करीब 3000 गीत लिखे. इसके अलावा उन्होंने 2000 रूबाईयां भी लिखीं. रूबाई चार पंक्तियों वाला दोहा होता है. साथ ही उन्होंने छह खंडों वाले अध्यात्मिक महाकाव्य मसनवी की रचना भी की.”
शायरी, संगीत और नृत्य
जीवन के इन तीन दशकों में रूमी ने शायरी, संगीत और नृत्य को धार्मिक परंपराओं से जोड़ने का काम किया. गूच कहते हैं, “रूमी जब अध्यात्म में डूबे होते थे या फिर शायरी बोल रहे होते, तो झूमते रहते थे.”
उनकी मृत्यु के बाद उनके इसी अंदाज़ को लोगों ने अध्यात्मिक नृत्य के तौर पर अपनाया. रूमी ने अपनी एक ग़ज़ल में लिखा है, “मैं पहले प्रार्थना-सजदा सुनाता था. अब मैं धुन, शायरी और गीत सुनाता हूं.”
उनकी मौत के सैकड़ों साल बाद रूमी की शायरी सुनाई जाती है, गाई जाती है, इसे संगीत में सजाया जाता है.
ये शायरी संगीत, फ़िल्म, यूट्यूब वीडियो और ट्वीट्स की दुनिया के लिए प्रेरणा स्रोत साबित हो रही है. क्या वजह है कि रूमी की रूबाईयां आज भी लोकप्रिय हैं?
गूच कहते हैं, “रूमी प्रेम और उल्लास के कवि थे. उनकी रचनाएं शम्स के वियोग, प्रेम और विधाता से संबंधित उनके अनुभव और मृत्यु का सामना करते हुए उनके अनुभवों से निकली हैं. रूमी का संदेश सीधे संवाद करता है. एक बार मैंने एक बेहतरीन संदेश देखा, जो रूमी की रचना की एक पंक्ति थी- सही और ग़लत करने के विचार से परे, एक जगह होती है, मैं तुमसे वहीं मिलूंगा.”
नारोपा यूनिवर्सिटी के जैक कैरोएक स्कूल ऑफ डिसइम्बॉडिड पोएटिक्स विभाग की सह-संस्थापक और कवि एने वाल्डमान कहती हैं, “जब हम सूफ़ी परंपरा, परम आनंद और भक्ति भाव के अलावा शायरी की ताक़त को समझने का प्रयास करते हैं तो रूमी काफी रहस्यमयी और विचारोत्तेजक शायर के तौर पर सामने आते हैं.”
रूबाईयां आज भी जीवंत
काव्यशास्त्र की प्रोफेसर एने वाल्डमान कहती हैं, “समलैंगिक परंपरा को भी उनसे बढ़ावा मिला. सैफ़ो से लेकर वॉल्ट व्हिट्मैन तक, वे परमानंद की तलाश करने वाली परंपरा में बने रहे.”
अमरीका में नेशनल लाइब्रेरी सीरीज में रूमी को भी जगह मिली है. इस प्रोजेक्ट की सह प्रायोजक पोएट्स हाउस की कार्यकारी निदेशक ली ब्रीक्केटी कहती हैं, “समय, जगह और संस्कृति के लिहाज से रूमी की रूबाईयां आज भी जीवंत लगती हैं.”
ब्रीक्केटी कहती हैं, “उनकी रचनाएं हमें अपनी उस खोज को समझने में मदद करती हैं, जो प्रेम और परमआनंद के भाव से जुड़ी है.”
ब्रीक्केटी रूमी की रचनाओं की तुलना सौंदर्य और प्रेम की गूंज के लिहाज से शेक्सपीयर से करती हैं.
कोलमैन बार्क्स ने रूमी की रचनाओं का अनुवाद किया है. इन रचनाओं की लोकप्रियता ने ही रूमी की शायरी को अमरीका में सबसे ज्यादा बिकने वाली शायरी बना दिया.
वे कहते हैं, “रूमी की कल्पनाओं में ताज़गी है. उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वे कहीं हमारे अंदर से आ रही हैं. उनमें गज़ब का ह्यूमर भी है. उनकी रचनाओं में चंचलता के बीच ही ज्ञान की झलक भी मिलती है.”
1976 में कवि रॉबर्ट ब्लाय ने बार्क्स को रूमी की रचनाओं का वह अनुवाद दिया जो केंब्रिज यूनिवर्सिटी के एजे अरबेरी ने किया था.
ब्लाय ने बार्क्स से कहा था, “इन कविताओं को इनके पिंजरे से रिहा करने की जरूरत है.” इसके बाद बार्क्स ने उस अकादमिक अनुवाद को अमरीकी शैली की आमफहम अंग्रेजी में बदल डाला.
लाखों प्रतियों की बिक्री
इसके बाद 33 सालों में बार्क्स ने 22 खंडों में रूमी की रचनाओं का अनुवाद किया.
इनमें द इंसेशिएल रूमी, एन ईयर विद रूमी, रूमी: द बिग रेड बुक और रूमीस फादर्स स्पिरिच्यूयल डायरी, द ड्राउनड बुक शामिल हैं. इनका प्रकाशन हार्परवन ने किया है. इन किताबों की 20 लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और उनका 23 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.
बार्क्स रूमी की इस लोकप्रियता के बारे में कहते हैं, “मेरे ख़्याल से दुनिया भर में रूमी को लेकर एक आंदोलन जैसा चल रहा है, जो सभी धर्मों में दिख रहा है. इसके पीछे सांप्रदायिक हिंसा को खत्म कर, धर्म को धर्म से अलग करने वाली दीवारों को हटाने की भावना है. ऐसा कहा जाता है कि 1273 में रूमी को दफ़न करने के समय सभी धर्मों के लोग शामिल हुए थे, क्योंकि वे हर किसी की आस्था को मज़बूत करने में कामयाब हुए थे. रूमी के लेखन में आज भी यही अहम तत्व है.”
रुटर्जस यूनिवर्सिटी में मध्यकालीन सूफीवाद के विद्धान जावेद मोजादेदी कहते हैं, “रूमी फ़ारसी कवियों में प्रयोगधर्मी थे और सूफ़ी दिग्गज थे. उनकी रूबाईयों में रहस्य की गहराई भी है और एक तरह की बोल्डनेस भी है, इसी वजह से वो आज इतने लोकप्रिय हैं.”
मोजादेदी के मुताबिक रूमी की रचनाओं में सबसे पहली ख़ास बात तो ये है कि वे पाठकों से सीधा संवाद करती हैं. इसके अलावा रूमी की रचनाओं में पाठकों को कुछ सीख देने की प्रबल इच्छा भी अभिव्यक्त होती है.
रूमी की तीसरी खास बात है उनकी कल्पनाशीलता है. मोजादेदी के मुताबिक चौथी बात ” सूफ़ी परंपरा तो यह रही है कि प्रेम मिलन के अप्राप्य होने और प्रेमिका के ठुकरा देने के दर्द पर ज़ोर दिया जाए. लेकिन रूमी मिलन को एक उत्सव की तरह मनाते हैं.”
मोजादेदी ने रूमी की सबसे बेहतरीन रचना मसनवी के छह खंडों में से तीन खंडों का अनुवाद भी किया है. रूमी की मसनवी एक ही शायर के लिखे हुए 26 हज़ार अशार की सबसे लंबी आध्यात्मिक काव्य रचना है. मोजादेदी की नज़र में इस्लामी दुनिया में रूमी की मसनवी क़ुरान के बाद सबसे प्रभावी रचना है.
Comments
Post a Comment